आबू पर्वत पर अग्निकुण्ड से कैसे उत्पन्न हुये थे क्षत्रिय ?

आबू पर्वत पर अग्निकुण्ड से कैसे उत्पन्न हुये थे क्षत्रिय ?

आबू पर्वत में क्षत्रियों की उत्पत्ति के बारे में अक्सर सुनने पढने को मिलता है कि क्षत्रिय राजस्थान में आबू पर्वत पर आयोजित यज्ञ से उत्पन्न हुये है पर क्या यज्ञ के अग्निकुण्ड से मानव की उत्पत्ति संभव है ? यदि नहीं तो फिर यह कहानी व मान्यता कैसे प्रचलित हुई ? क्षत्रियों की अग्निकुंड से उत्पत्ति के पीछे प्रचलित इस कहानी के पीछे कुछ तो ऐसा होगा जिसकी वजह से यह कहानी प्रचलित हुई और अग्निवंश और अग्निकुंड से क्षत्रियों की उत्पत्ति को मिथ बताने वाले इतिहासकारों व विद्वानों ने भी क्षत्रियों को अग्नि द्वारा शुद्ध करने की बात को मान्यता देते हुए अपनी बात को अपरोक्ष रूप से काट कर इस प्रचलित कहानी को मान्यता दे डाली है|

इतिहासकार और विद्वान ओझा, वैद्य और गांगोली के अलावा सभी विद्वानों ने अग्निवंश की मान्यता को प्रत्यक्ष नहीं तो परोक्ष रूप से स्वीकार किया है| इसी कहानी पर राजस्थान के इतिहासकार श्री देवीसिंह जी मंडावा लिखते है कि – “जब वैदिक धर्म ब्राह्मणों के नियंत्रण में आ गया था और बुद्ध ने इसके विरुद्ध बगावत कर अपना नया बौद्ध धर्म चलाया तो शनै: शनै: क्षत्रिय वर्ग वैदिक धर्म त्यागकर बौद्ध धर्मी बन गया| क्षत्रियों के साथ साथ वैश्यों ने भी बौद्ध धर्म अंगीकार कर लिया|

क्षत्रियों के बौद्ध धर्म ग्रहण करने के पश्चात उनकी वैदिक परम्परायें भी नष्ट हो गई और वैदिक क्षत्रिय जो कि सूर्य व चंद्रवंशी कहलाते थे, उन परम्पराओं के सम्राट हो गये तथा सूर्य व चन्द्रवंशी कहलाने से वंचित हो गये| क्योंकि ये मान्यतायें और परम्परायें तो वैदिक धर्म की थी जिन्हें वे परित्याग कर चुके थे| यही कारण है कि ब्राह्मणों ने पुराणों तक में यह लिख दिया कलियुग में ब्राह्मण व शुद्र ही रह जायेंगे व कलियुग के राजा शुद्र होंगे, बौद्ध के अत्याचारों से पीड़ित होकर ब्राह्मणों ने बुद्ध धर्मावलम्बी क्षत्रिय शासकों को भी शुद्र की संज्ञा दे डाली| दुराग्रह से ग्रसित हो उन्होंने यह भी लिख दिया कि कलियुग में वैश्य और क्षत्रिय दोनों लोप हो जायेंगे|

उस काल में समाज की रक्षा करना व शासन चलाना क्षत्रियों का उतरदायित्व था, चूँकि वे बौद्ध हो गये थे अत: वैदिक धर्म की रक्षा का जटिल प्रश्न ब्राह्मणों के सामने उपस्थित हो गया| इस पर ब्राह्मणों के मुखिया ऋषियों ने अपने अथक प्रयासों से चार क्षत्रिय कुलों को वापस वैदिक धर्म में दीक्षित करने में सफलता प्राप्त कर ली| आबू पर्वत पर यज्ञ करके बौद्ध धर्म से वैदिक धर्म में उनका समावेश किया गया| यही अग्निकुंड का स्वरूप है| वे प्राचीन सूर्यवंशी व चन्द्रवंशी ही थे इसलिए बाद में शिलालेखों में भी तीन वंश अपने प्राचीन वंश का हवाला देते रहे लेकिन परमारवंश ने प्राचीन वंश न लिखकर अपने आपको अग्निवंश लिखना शुरू कर दिया|

कुमारिल भट्ट ई.७०० वि. ७५७ ने बड़ी संख्या में बौद्धों को वापस वैदिक धर्म में लाने का कार्य शुरू किया जिसे आगे चलकर आदि शंकराचार्य ने पूर्ण किया| अत: इन चार क्षत्रिय वंशों को वैदिक धर्म में वापस दीक्षा दिलाने का कार्य उसी युग में होना चाहिए| आबू के यज्ञ में दीक्षा का एक ऐतिहासिक कार्यक्रम था जो ६ठी या ७वीं सदी में हुआ है| यह कोई कपोल कल्पना या मिथ नहीं था बल्कि वैदिक धर्म को वापस सशक्त बनाने का प्रथम कदम था जिसकी स्मृति में बाद में ये वंश अपने आपको अग्निकुंड से उत्पन्न अग्निवंशी कहने लग गये| आज भी आबू पर यह यज्ञ स्थल मौजूद है|”

मुग़ल इतिहासकार अबुलफजल ने भी “आईने अकबरी” में इसी मान्यता का उल्लेख किया है| उसने यज्ञ का समय वि. ८१८ दिया है| वंश भास्कर में भी बौद्धों के उत्पात मचाने से उनका दमन करने हेतु अग्निकुल वालों को उत्पन्न किया जाना माना गया है| अबुलफजल के समय किन्हीं प्राचीन ग्रंथों अथवा मान्यताओं से विदित होता है कि ये चारों (प्रतिहार, सोलंकी, परमार और चौहान) वंश बौद्ध धर्म का परित्याग कर वापस अपने पूर्व वैदिक धर्म में लौट आये थे|

चूँकि बौद्ध धर्म अपना चुके क्षत्रियों का वापस धर्म परिवर्तन करने व वैदिक धर्म में दीक्षित करने हेतु यज्ञ कर शुद्धिकरण करने को क्षत्रियों को यज्ञ के अग्निकुंड से उत्पन्न माना जाने की मान्यता प्रचलित हो गयी और धीरे धीरे कहानियां बन गई कि – क्षत्रिय आबू पर्वत पर अग्निकुंड से पैदा हुए थे| जबकि इसी धरा पर मौजूद बौद्ध धर्म में दीक्षित चार क्षत्रिय वंश (प्रतिहार, सोलंकी, परमार और चौहान) यज्ञ के अग्निकुंड के पास बैठ वापस वैदिक धर्म में दीक्षित हुये|

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अब प्रतिहार वंश की उत्पत्ति के बारे में जो भ्रांतियाँ है उनका निराकारण करते है। एक मान्यता यह है की ये वंश अबू पर्वत पर हुए यज्ञ की अग्नि से उत्पन्न हुआ है,जो सरासर कपोल कल्पना है।हो सकता है अबू पर हुए यज्ञ में इस वंश की हाजिरी के कारण इस वंश के साथ साथ अग्निवंश की कथा रूढ़ हो गई हो। खैर अग्निवंश की मान्यता कल्पना के अलावा कुछ नहीं हो सकती और ऐसी कल्पित मान्यताये इतिहास में महत्त्व नहीं रखती।

इस वंश की उत्पत्ति के संबंध में प्राचीन साहित्य,ग्रन्थ और शिलालेख आदि क्या कहते है इसपर भी प्रकाश डालते है।
प्रतिहारो को सूर्यवंशी सिद्ध करने वाले शिलालेख?

(1) महाराज कक्कूक का घटियाला शिलालेख भी इसे लक्ष्मण का वंश प्रमाणित करता है….अर्थात रघुवंशी

रहुतिलओ पड़ीहारो आसी सिरि लक्खणोत्रि रामस्य।
तेण पडिहार वन्सो समुणई एत्थ सम्प्तो।।

(2) बाउक प्रतिहार के जोधपुर लेख से भी इनका रघुवंशी होना प्रमाणित होता है।(९ वी शताब्दी)

स्वभ्राता राम भद्रस्य प्रतिहार्य कृतं सतः।
श्री प्रतिहारवड शोयमत श्रोन्नतिमाप्युयात।

प्रतिहार वंश एक शुद्ध सूर्यवंशी राजपूत राजवंश है… प्रतिहारो की मंडोर रियासत के लोगो में भी सूर्य का चिन्ह अंकित है।

सौजन्य:- श्री गाजण माता यूथ ब्रिगेड भारत

जय मां गाजण
जय मिहिरभोज।।
जय राजपूताना।।

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